आत्माराम (कहानी) :
मुंशी प्रेमचंद
Aatmaram
(Hindi Story) : Munshi Premchand
आत्माराम
कहॉँ गया। उसने फिर पिंजड़े को देखा, तोता गायब था। महादेव घबड़ा कर उठा और
इधर-उधर खपरैलों पर निगाह दौड़ाने लगा। उसे संसार में कोई वस्तु अगर प्यारी थी, तो वह यही तोता। लड़के-बालों, नाती-पोतों से उसका जी भर गया था। लड़को की
चुलबुल से उसके काम में विघ्न पड़ता था। बेटों से उसे प्रेम न था; इसलिए नहीं कि वे निकम्मे थे; बल्कि इसलिए कि उनके कारण वह अपने आनंददायी
कुल्हड़ों की नियमित संख्या से वंचित रह जाता था। पड़ोसियों से उसे चिढ़ थी, इसलिए कि वे अँगीठी से आग निकाल ले जाते थे।
इन समस्त विघ्न-बाधाओं से उसके लिए कोई पनाह थी, तो यही तोता था। इससे उसे किसी प्रकार का
कष्ट न होता था। वह अब उस अवस्था में था जब मनुष्य को शांति भोग के सिवा और कोई
इच्छा नहीं रहती।
तोता एक खपरैल
पर बैठा था। महादेव ने पिंजरा उतार लिया और उसे दिखाकर कहने लगा—‘आ आ’ सत्त
गुरुदत्त शिवदाता।’ लेकिन गॉँव और घर के लड़के एकत्र हो कर चिल्लाने और तालियॉँ
बजाने लगे। ऊपर से कौओं ने कॉँव-कॉँव की रट लगायी? तोता उड़ा और गॉँव से बाहर निकल कर एक पेड़
पर जा बैठा। महादेव खाली पिंजडा लिये उसके पीछे दौड़ा, सो दौड़ा। लोगो को उसकी द्रुतिगामिता पर
अचम्भा हो रहा था। मोह की इससे सुन्दर, इससे सजीव, इससे भावमय कल्पना नहीं की जा सकती।
दोपहर हो गयी
थी। किसान लोग खेतों से चले आ रहे थे। उन्हें विनोद का अच्छा अवसर मिला। महादेव को
चिढ़ाने में सभी को मजा आता था। किसी ने कंकड़ फेंके, किसी ने तालियॉँ बजायीं। तोता फिर उड़ा और वहाँ
से दूर आम के बाग में एक पेड़ की फुनगी पर जा बैठा । महादेव फिर खाली पिंजड़ा लिये
मेंढक की भॉँति उचकता चला। बाग में पहुँचा तो पैर के तलुओं से आग निकल रही थी, सिर चक्कर खा रहा था। जब जरा सावधान हुआ, तो फिर पिंजड़ा उठा कर कहने लगे—‘सत्त
गुरुदत्त शिवदत्त दाता’ तोता फुनगी से उतर कर नीचे की एक डाल पी आ बैठा, किन्तु महादेव की ओर सशंक नेत्रों से ताक रहा
था। महादेव ने समझा,
डर रहा है। वह
पिंजड़े को छोड़ कर आप एक दूसरे पेड़ की आड़ में छिप गया। तोते ने चारों ओर गौर से
देखा,
निश्शंक हो गया, अतरा और आ कर पिंजड़े के ऊपर बैठ गया। महादेव
का हृदय उछलने लगा। ‘सत्त गुरुदत्त शिवदत्त दाता’ का मंत्र जपता हुआ धीरे-धीरे
तोते के समीप आया और लपका कि तोते को पकड़ लें, किन्तु तोता हाथ न आया, फिर पेड़ पर आ बैठा।
शाम तक यही हाल
रहा। तोता कभी इस डाल पर जाता, कभी उस डाल पर। कभी पिंजड़े पर आ बैठता, कभी पिंजड़े के द्वार पर बैठे अपने दाना-पानी
की प्यालियों को देखता,
और फिर उड़
जाता। बुड्ढा अगर मूर्तिमान मोह था, तो तोता मूर्तिमयी माया। यहॉँ तक कि शाम हो
गयी। माया और मोह का यह संग्राम अंधकार में विलीन हो गया।
३
रात हो गयी !
चारों ओर निबिड़ अंधकार छा गया। तोता न जाने पत्तों में कहॉँ छिपा बैठा था। महादेव
जानता था कि रात को तोता कही उड़कर नहीं जा सकता, और न पिंजड़े ही में आ सकता हैं, फिर भी वह उस जगह से हिलने का नाम न लेता था।
आज उसने दिन भर कुछ नहीं खाया। रात के भोजन का समय भी निकल गया, पानी की बूँद भी उसके कंठ में न गयी, लेकिन उसे न भूख थी, न प्यास ! तोते के बिना उसे अपना जीवन
निस्सार,
शुष्क और सूना
जान पड़ता था। वह दिन-रात काम करता था; इसलिए कि यह उसकी अंत:प्रेरणा थी; जीवन के और काम इसलिए करता था कि आदत थी। इन
कामों मे उसे अपनी सजीवता का लेश-मात्र भी ज्ञान न होता था। तोता ही वह वस्तु था, जो उसे चेतना की याद दिलाता था। उसका हाथ से
जाना जीव का देह-त्याग करना था।
महादेव दिन-भर
का भूख-प्यासा,
थका-मॉँदा, रह-रह कर झपकियॉँ ले लेता था; किन्तु एक क्षण में फिर चौंक कर ऑंखे खोल
देता और उस विस्तृत अंधकार में उसकी आवाज सुनायी देती—‘सत्त गुरुदत्त शिवदत्त
दाता।’
आधी रात गुजर
गयी थी। सहसा वह कोई आहट पा कर चौका। देखा, एक दूसरे वृक्ष के नीचे एक धुँधला दीपक जल
रहा है,
और कई आदमी
बैंठे हुए आपस में कुछ बातें कर रहे हैं। वे सब चिलम पी रहे थे। तमाखू की महक ने
उसे अधीर कर दिया। उच्च स्वर से बोला—‘सत्त गुरुदत्त शिवदत्त दाता’ और उन आदमियों
की ओर चिलम पीने चला गया;
किन्तु जिस
प्रकार बंदूक की आवाज सुनते ही हिरन भाग जाते हैं उसी प्रकार उसे आते देख सब-के-सब
उठ कर भागे। कोई इधर गया,
कोई उधर। महादेव
चिल्लाने लगा—‘ठहरो-ठहरो !’ एकाएक उसे ध्यान आ गया, ये सब चोर हैं। वह जारे से चिल्ला
उठा—‘चोर-चोर,
पकड़ो-पकड़ो !’
चोरों ने पीछे फिर कर न देखा।
महादेव दीपक के
पास गया,
तो उसे एक मलसा
रखा हुआ मिला जो मोर्चे से काला हो रहा था। महादेव का हृदय उछलने लगा। उसने कलसे
मे हाथ डाला,
तो मोहरें थीं।
उसने एक मोहरे बाहर निकाली और दीपक के उजाले में देखा। हॉँ मोहर थी। उसने तुरंत
कलसा उठा लिया,
और दीपक बुझा
दिया और पेड़ के नीचे छिप कर बैठ रहा। साह से चोर बन गया।
उसे फिर शंका
हुई,
ऐसा न हो, चोर लौट आवें, और मुझे अकेला देख कर मोहरें छीन लें। उसने
कुछ मोहर कमर में बॉँधी,
फिर एक सूखी
लकड़ी से जमीन की की मिटटी हटा कर कई गड्ढे बनाये, उन्हें माहरों से भर कर मिटटी से ढँक दिया।
४
महादेव के
अतर्नेत्रों के सामने अब एक दूसरा जगत् था, चिंताओं और कल्पना से परिपूर्ण। यद्यपि अभी
कोष के हाथ से निकल जाने का भय था; पर अभिलाषाओं ने अपना काम शुरु कर दिया। एक
पक्का मकान बन गया,
सराफे की एक
भारी दूकान खुल गयी,
निज सम्बन्धियों
से फिर नाता जुड़ गया,
विलास की
सामग्रियॉँ एकत्रित हो गयीं। तब तीर्थ-यात्रा करने चले, और वहॉँ से लौट कर बड़े समारोह से यज्ञ, ब्रह्मभोज हुआ। इसके पश्चात एक शिवालय और
कुऑं बन गया,
एक बाग भी लग
गया और वह नित्यप्रति कथा-पुराण सुनने लगा। साधु-सन्तों का आदर-सत्कार होने लगा।
अकस्मात उसे
ध्यान आया,
कहीं चोर आ जायँ
,
तो मैं भागूँगा
क्यों-कर?
उसने परीक्षा
करने के लिए कलसा उठाया। और दो सौ पग तक बेतहाशा भागा हुआ चला गया। जान पड़ता था, उसके पैरो में पर लग गये हैं। चिंता शांत हो
गयी। इन्हीं कल्पनाओं में रात व्यतीत हो गयी। उषा का आगमन हुआ, हवा जागी, चिड़ियॉँ गाने लगीं। सहसा महादेव के कानों
में आवाज आयी—
‘सत्त गुरुदत्त
शिवदत्त दाता,
राम के चरण में
चित्त लगा।’
यह बोल सदैव
महादेव की जिह्वा पर रहता था। दिन में सहस्रों ही बार ये शब्द उसके मुँह से निकलते
थे,
पर उनका धार्मिक
भाव कभी भी उसके अन्त:कारण को स्पर्श न करता था। जैसे किसी बाजे से राग निकलता हैं, उसी प्रकार उसके मुँह से यह बोल निकलता था।
निरर्थक और प्रभाव-शून्य। तब उसका हृदय-रुपी वृक्ष पत्र-पल्लव विहीन था। यह निर्मल
वायु उसे गुंजरित न कर सकती थी; पर अब उस वृक्ष में कोपलें और शाखाऍं निकल
आयी थीं। इन वायु-प्रवाह से झूम उठा, गुंजित हो गया।
अरुणोदय का समय
था। प्रकृति एक अनुरागमय प्रकाश में डूबी हुई थी। उसी समय तोता पैरों को जोड़े हुए
ऊँची डाल से उतरा,
जैसे आकाश से
कोई तारा टूटे और आ कर पिंजड़े में बैठ गया। महादेव प्रफुल्लित हो कर दौड़ा और
पिंजड़े को उठा कर बोला—आओ आत्माराम तुमने कष्ट तो बहुत दिया, पर मेरा जीवन भी सफल कर दिया। अब तुम्हें
चॉँदी के पिंजड़े में रखूंगा और सोने से मढ़ दूँगा।’ उसके रोम-रोम के परमात्मा के
गुणानुवाद की ध्वनि निकलने लगी। प्रभु तुम कितने दयावान् हो ! यह तुम्हारा असीम
वात्सल्य है,
नहीं तो मुझ
पापी,
पतित प्राणी कब
इस कृपा के योग्य था ! इस पवित्र भावों से आत्मा विन्हल हो गयी ! वह अनुरक्त हो कर
कह उठा—
‘सत्त गुरुदत्त
शिवदत्त दाता,
राम के चरण में
चित्त लागा।’
उसने एक हाथ में पिंजड़ा लटकाया, बगल में कलसा दबाया और घर चला।
५
महादेव घर
पहुँचा,
तो अभी कुछ
अँधेरा था। रास्ते में एक कुत्ते के सिवा और किसी से भेंट न हुई, और कुत्ते को मोहरों से विशेष प्रेम नहीं
होता। उसने कलसे को एक नाद में छिपा दिया, और कोयले से अच्छी तरह ढँक कर अपनी कोठरी में
रख आया। जब दिन निकल आया तो वह सीधे पुराहित के घर पहुँचा। पुरोहित पूजा पर बैठे
सोच रहे थे—कल ही मुकदमें की पेशी हैं और अभी तक हाथ में कौड़ी भी नहीं—यजमानो में
कोई सॉँस भी लेता। इतने में महादेव ने पालागन की। पंड़ित जी ने मुँह फेर लिया। यह
अमंगलमूर्ति कहॉँ से आ पहुँची, मालमू नहीं, दाना भी मयस्सर होगा या नहीं। रुष्ट हो कर
पूछा—क्या है जी,
क्या कहते हो।
जानते नहीं,
हम इस समय पूजा
पर रहते हैं।
महादेव ने
कहा—महाराज,
आज मेरे यहॉँ
सत्यनाराण की कथा है।
पुरोहित जी
विस्मित हो गये। कानों पर विश्वास न हुआ। महादेव
के घर कथा का
होना उतनी ही असाधारण घटना थी, जितनी अपने घर से किसी भिखारी के लिए भीख
निकालना। पूछा—आज क्या है?
महादेव बोला—कुछ
नहीं,
ऐसा इच्छा हुई
कि आज भगवान की कथा सुन लूँ।
प्रभात ही से
तैयारी होने लगी। वेदों के निकटवर्ती गॉँवो में सूपारी फिरी। कथा के उपरांत भोज का
भी नेवता था। जो सुनता आश्चर्य करता आज रेत में दूब कैसे जमी।
संध्या समय जब
सब लोग जमा हो,
और पंडित जी अपने
सिंहासन पर विराजमान हुए,
तो महादेव खड़ा
होकर उच्च स्वर में बोला—भाइयों मेरी सारी उम्र छल-कपट में कट गयी। मैंने न जाने
कितने आदमियों को दगा दी,
कितने खरे को
खोटा किया;
पर अब भगवान ने
मुझ पर दया की है,
वह मेरे मुँह की
कालिख को मिटाना चाहते हैं। मैं आप सब भाइयों से ललकार कर कहता हूँ कि जिसका मेरे
जिम्मे जो कुछ निकलता हो,
जिसकी जमा मैंने
मार ली हो,
जिसके चोखे माल
का खोटा कर दिया हो,
वह आकर अपनी
एक-एक कौड़ी चुका ले,
अगर कोई यहॉँ न
आ सका हो,
तो आप लोग उससे
जाकर कह दीजिए,
कल से एक महीने
तक,
जब जी चाहे, आये और अपना हिसाब चुकता कर ले। गवाही-साखी
का काम नहीं।
सब लोग सन्नाटे
में आ गये। कोई मार्मिक भाव से सिर हिला कर बोला—हम कहते न थे। किसी ने अविश्वास
से कहा—क्या खा कर भरेगा,
हजारों को टोटल
हो जायगा।
एक ठाकुर ने
ठठोली की—और जो लोग सुरधाम चले गये।
महादेव ने उत्तर
दिया—उसके घर वाले तो होंगे।
किन्तु इस समय
लोगों को वसूली की इतनी इच्छा न थी, जितनी यह जानने की कि इसे इतना धन मिल कहॉँ
से गया। किसी को महादेव के पास आने का साहस न हुआ। देहात के आदमी थे, गड़े मुर्दे उखाड़ना क्या जानें। फिर प्राय:
लोगों को याद भी न था कि उन्हें महादेव से क्या पाना हैं, और ऐसे पवित्र अवसर पर भूल-चूक हो जाने का भय
उनका मुँह बन्द किये हुए था। सबसे बड़ी बात यह थी कि महादेव की साधुता ने उन्हीं
वशीभूत कर लिया था।
अचानक पुरोहित
जी बोले—तुम्हें याद हैं,
मैंने एक कंठा
बनाने के लिए सोना दिया था,
तुमने कई माशे
तौल में उड़ा दिये थे।
महादेव—हॉँ, याद हैं, आपका कितना नुकसान हुआ होग।
पुरोहित—पचास
रुपये से कम न होगा।
महादेव ने कमर
से दो मोहरें निकालीं और पुरोहित जी के सामने रख दीं।
पुरोहितजी की
लोलुपता पर टीकाऍं होने लगीं। यह बेईमानी हैं, बहुत हो, तो दो-चार रुपये का नुकसान हुआ होगा। बेचारे
से पचास रुपये ऐंठ लिए। नारायण का भी डर नहीं। बनने को पंड़ित, पर नियत ऐसी खराब राम-राम !
लोगों को महादेव
पर एक श्रद्धा-सी हो गई। एक घंटा बीत गया पर उन सहस्रों मनुष्यों में से एक भी
खड़ा न हुआ। तब महादेव ने फिर कहॉँ—मालूम होता है, आप लोग अपना-अपना हिसाब भूल गये हैं, इसलिए आज कथा होने दीजिए। मैं एक महीने तक
आपकी राह देखूँगा। इसके पीछे तीर्थ यात्रा करने चला जाऊँगा। आप सब भाइयों से मेरी
विनती है कि आप मेरा उद्धार करें।
एक महीने तक
महादेव लेनदारों की राह देखता रहा। रात को चोंरो के भय से नींद न आती। अब वह कोई
काम न करता। शराब का चसका भी छूटा। साधु-अभ्यागत जो द्वार पर आ जाते, उनका यथायोग्य सत्कार करता। दूर-दूर उसका
सुयश फैल गया। यहॉँ तक कि महीना पूरा हो गया और एक आदमी भी हिसाब लेने न आया। अब
महादेव को ज्ञान हुआ कि संसार में कितना धर्म, कितना सद्व्यवहार हैं। अब उसे मालूम हुआ कि
संसार बुरों के लिए बुरा हैं और अच्छे के लिए अच्छा।
६
इस घटना को हुए
पचास वर्ष बीत चुके हैं। आप वेदों जाइये, तो दूर ही से एक सुनहला कलस दिखायी देता है।
वह ठाकुरद्वारे का कलस है। उससे मिला हुआ एक पक्का तालाब हैं, जिसमें खूब कमल खिले रहते हैं। उसकी मछलियॉँ
कोई नहीं पकड़ता;
तालाब के किनारे
एक विशाल समाधि है। यही आत्माराम का स्मृति-चिन्ह है, उसके सम्बन्ध में विभिन्न किंवदंतियॉँ
प्रचलित है। कोई कहता हैं,
वह रत्नजटित
पिंजड़ा स्वर्ग को चला गया,
कोई कहता, वह ‘सत्त गुरुदत्त’ कहता हुआ अंतर्ध्यान हो
गया,
पर यर्थाथ यह
हैं कि उस पक्षी-रुपी चंद्र को किसी बिल्ली-रुपी राहु ने ग्रस लिया। लोग कहते हैं, आधी रात को अभी तक तालाब के किनारे आवाज आती
है—
‘सत्त गुरुदत्त
शिवदत्त दाता,
राम के चरण में
चित्त लागा।’
महादेव के विषय
में भी कितनी ही जन-श्रुतियॉँ है। उनमें सबसे मान्य यह है कि आत्माराम के समाधिस्थ
होने के बाद वह कई संन्यासियों के साथ हिमालय चला गया, और वहॉँ से लौट कर न आया। उसका नाम आत्माराम
प्रसिद्ध हो गया।
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